शिल्प एवं उद्योग – BSEB class 8 social science history chapter 5 notes

भारत में प्राचीन काल से ही शिल्प और उद्योग का महत्वपूर्ण स्थान रहा है। भारतीय समाज में शिल्प और उद्योग सिर्फ आर्थिक गतिविधियाँ नहीं थीं, बल्कि ये सांस्कृतिक और सामाजिक जीवन का भी अभिन्न हिस्सा थे। भारत के विभिन्न क्षेत्रों में विकसित हुए शिल्प और उद्योग ने न केवल भारतीय अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ किया, बल्कि इन्हें विदेशों तक भी पहुँचाया।

Bseb class 8 social science history chapter 5 notes

इस लेख में हम ‘BSEB class 8 social science history chapter 5 notes के आधार पर शिल्प एवं उद्योग के महत्व, विकास और इतिहास को समझेंगे।

BSEB class 8 social science history chapter 5 notes-शिल्प एवं उद्योग

प्राचीन भारत में शिल्प:- प्राचीन काल से ही भारत में शिल्प कौशल का विकास हुआ। यह क्षेत्र मुख्य रूप से हथकरघा, मूर्तिकला, बुनाई, मिट्टी के बर्तन, धातु का कार्य, और आभूषण बनाने जैसे कार्यों के लिए प्रसिद्ध था। इन शिल्पों का निर्माण स्थानीय संसाधनों के आधार पर किया जाता था, जिससे यह क्षेत्र स्वावलंबी होता था।

  • हथकरघा और बुनाई: भारत में वस्त्र निर्माण की प्राचीन परंपरा रही है। भारतीय रेशम, सूती और ऊनी वस्त्रों की मांग विश्व भर में थी। विशेष रूप से बनारस, कांचीपुरम, और पटना जैसे शहर अपने उत्कृष्ट वस्त्रों के लिए प्रसिद्ध थे।हथकरघा शिल्प भारत के विभिन्न हिस्सों में विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में समृद्ध हुआ, जिससे लाखों कारीगरों को रोजगार मिला।
  • मूर्तिकला: भारत की मूर्तिकला में धार्मिक, सांस्कृतिक और ऐतिहासिक महत्व की झलक मिलती है। विभिन्न मंदिरों और स्मारकों में पत्थरों पर की गई मूर्तिकला आज भी भारत की समृद्ध कला संस्कृति को दर्शाती है।
    हड़प्पा सभ्यता से लेकर गुप्त काल तक की मूर्तिकला में उच्च स्तरीय शिल्पकला देखी जा सकती है।
  • मिट्टी के बर्तन: भारतीय ग्रामीण जीवन में मिट्टी के बर्तनों का विशेष स्थान रहा है। प्राचीन काल में मिट्टी के बर्तन न केवल घरेलू उपयोग के लिए बल्कि धार्मिक और सामाजिक अनुष्ठानों में भी उपयोग किए जाते थे।

धातु शिल्प: भारत में धातु शिल्प का विकास बहुत पुराना है। ताम्र, पीतल, कांस्य, और लोहे से बनाए गए उपकरण और मूर्तियाँ भारतीय धातुकला की समृद्ध परंपरा का प्रमाण हैं। विशेष रूप से दक्षिण भारत और गुजरात में धातु शिल्प की उच्च परंपरा विकसित हुई।

  • औद्योगिक क्रांति और भारतीय शिल्प पर प्रभाव: 18वीं और 19वीं सदी के दौरान यूरोप में औद्योगिक क्रांति का विकास हुआ, जिसने भारत के शिल्प और उद्योगों पर गहरा प्रभाव डाला। ब्रिटिश शासन के आगमन के साथ ही भारतीय शिल्पकारों और उद्योगों की स्थिति कमजोर होती गई। ब्रिटिश नीतियों और औद्योगिक क्रांति के कारण भारतीय शिल्पकला को भारी नुकसान हुआ।
  • ब्रिटिश व्यापारिक नीतियाँ: ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारत में कच्चे माल की मांग बढ़ाई और भारतीय वस्त्र उद्योग को नष्ट करने की नीतियाँ अपनाईं। इससे भारत के हथकरघा उद्योग को बड़ा झटका लगा।
    भारतीय वस्त्रों पर भारी कर लगाया गया, जबकि ब्रिटेन में बने वस्त्रों को भारत में सस्ते दामों पर बेचा गया, जिससे भारतीय वस्त्र उद्योग बर्बाद हो गया।
  • शिल्पकारों की आर्थिक स्थिति: ब्रिटिश शासन के दौरान शिल्पकारों की आर्थिक स्थिति खराब होती गई। उन्हें अपनी कला के लिए सही दाम नहीं मिलते थे और कच्चे माल की कीमतें भी बढ़ा दी गई थीं।
    स्थानीय शिल्पकारों और कारीगरों को रोजगार के अवसर कम होने लगे और वे बेरोजगार होने लगे।

कारखानों का विकास: ब्रिटिश शासन के दौरान भारत में बड़े पैमाने पर मशीनों का उपयोग किया जाने लगा। इससे भारतीय हस्तशिल्प उद्योग की मांग कम हो गई और मशीन निर्मित वस्त्रों और सामानों ने बाजार पर कब्जा कर लिया।

  • भारतीय उद्योगों का पतन: औद्योगिक क्रांति के बाद भारत में परंपरागत शिल्प और उद्योगों का पतन होने लगा। इसका मुख्य कारण ब्रिटिश नीतियों के कारण भारतीय उद्योगों को मिलने वाली कच्चे माल की कमी और विदेशी वस्त्रों की प्रतिस्पर्धा थी। परिणामस्वरूप भारतीय शिल्पकार बेरोजगार हो गए और उनके शिल्प कौशल का ह्रास होने लगा।
  • स्वतंत्रता संग्राम और स्वदेशी आंदोलन: ब्रिटिश शासन के खिलाफ भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दौरान स्वदेशी आंदोलन का विशेष महत्व था। महात्मा गांधी और अन्य नेताओं ने देशवासियों से अपील की कि वे ब्रिटिश वस्त्रों और सामानों का बहिष्कार करें और भारतीय शिल्प और उद्योगों को पुनर्जीवित करें।
  • स्वदेशी आंदोलन: स्वदेशी आंदोलन का मुख्य उद्देश्य भारतीय हस्तशिल्प और वस्त्र उद्योगों को पुनः सशक्त बनाना था। इसके तहत लोगों ने ब्रिटिश वस्त्रों का बहिष्कार किया और खादी को अपनाया।
    गांधीजी ने चरखा को भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का प्रतीक बनाया और लोगों से स्थानीय स्तर पर वस्त्र निर्माण करने का आह्वान किया।
  • स्वावलंबन: स्वदेशी आंदोलन ने भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में स्वावलंबन को बढ़ावा दिया। लोग हस्तशिल्प और छोटे उद्योगों की ओर वापस लौटने लगे।
    इस आंदोलन ने भारतीय शिल्पकारों और कारीगरों को पुनः रोजगार प्रदान किया और भारतीय उद्योगों को जीवित रखा।

स्वतंत्रता के बाद भारत में उद्योग का विकास: स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारत सरकार ने शिल्प और उद्योगों के विकास के लिए कई नीतियाँ और योजनाएँ बनाईं। इसके तहत कुटीर उद्योगों को बढ़ावा दिया गया और बड़े उद्योगों की स्थापना की गई।

  • कुटीर उद्योगों का विकास: स्वतंत्रता के बाद कुटीर उद्योगों को प्रोत्साहित किया गया। हथकरघा, हस्तशिल्प, और कुटीर उद्योगों के विकास के लिए सरकार ने कई योजनाएँ चलाईं।
    कुटीर उद्योगों ने ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार प्रदान किया और भारतीय शिल्पकारों के जीवन स्तर में सुधार किया।
  • बड़े उद्योगों की स्थापना: स्वतंत्रता के बाद भारत में बड़े उद्योगों की स्थापना की गई, जिसमें इस्पात, वस्त्र, सीमेंट, और अन्य उद्योग शामिल थे। इन उद्योगों ने भारतीय अर्थव्यवस्था को मजबूती प्रदान की।
    बड़े उद्योगों की स्थापना से भारत में औद्योगिक उत्पादन में वृद्धि हुई और रोजगार के अवसर बढ़े।

निष्कर्ष:

भारत के शिल्प और उद्योगों का इतिहास समृद्ध और विविधतापूर्ण रहा है। प्राचीन काल में भारतीय शिल्पकारों ने न केवल भारत बल्कि विदेशों में भी अपनी कला का लोहा मनवाया। लेकिन औद्योगिक क्रांति और ब्रिटिश शासन के दौरान भारतीय शिल्प और उद्योगों को भारी नुकसान हुआ। स्वदेशी आंदोलन और स्वतंत्रता के बाद भारत सरकार के प्रयासों से इन उद्योगों को पुनः सशक्त करने के प्रयास किए गए। ‘Bihar Board Class 8 History Chapter 5 Notes’ के अनुसार शिल्प और उद्योग भारतीय समाज और अर्थव्यवस्था के महत्वपूर्ण स्तंभ हैं, जिनका संरक्षण और संवर्धन आवश्यक है।

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